Sunday, November 13, 2011

भौचक है भुवरी


जोर-शोर से चलाया जा रहा है अभियान
नहीं रहेगा कोई निरक्षर
सभी पढ़ेंगे आगे बढ़ेंगे.

बहुत खुश है सरकार
मुनिया के साथ भुवरी भी सीख गयी है
लिखना अपना नाम
अब अंगूठा नहीं लगायेगी भुवरी
अक्षर मेले में अधिकारीयों ने उसे बताया मिसाल
मंत्री जी के हाथों दिया गया सम्मान

भौचक है भुवरी
उसे समझ नहीं आ रहा
जो सीख गयी लिखना अपना नाम
तो कौन सी पलट गयी दुनिया
और मुनीम ठेकेदारों का ईमान
जो माइक-टेंट लगा डींगे हांक रहें है
नेता, हाकिम, ओहदेदार

अभी भी नरेगा में उसे उतनी ही मजूरी मिलती है
दस टका कम
ज्यादा बोला किया विरोध तो कम बंद
बेटी का हाथ पीला करने की फ़िराक में
साहूकार के पीले पन्नों में दर्ज होता रहता है नाम

सरकार के बड़े-बड़े वादों , घोषणाओं
और भुँवरी की तमाम कोशिशों के बाद भी
इंदिरा आवास में नहीं मिल पाया मकान
जनता दरबार में जब लगायी गोहर
अधिकारियों ने उसी पर मढ़ दिया आरोप
बहुत हरामी हैं ये लोग
बेच देते हैं अपना मकान
और मासूमियत से साफ झूठ बोल देते हैं सरकार
और पेश कर दिया एक एलॉटमेंट लेटर
जिस पर भुवरी ने बना रखा था दस्तखत

लगते हुए फटकार
थाने में बंद करा देने की देते हुए धमकी
निकल दी गयी भुवरी

टेंट पंडाल फिर सजा है
नेता, मंत्री, अधिकारी सब खुश हैं
गिना रहें है अपनी उपलब्धियां
विकास के कई और प्रतिमान

भुवरी भौचक, परेशान
इन शोर शराबों के बीच खो गयी है
उसकी आवाज़.

वर्तमान साहित्य अक्टूबर २०११ में प्रकाशित





अब जनता जग रही है 


अबकी बार,
किसी रईस बाप के बिगडैल बेटों के
हवस का शिकार नहीं हुई कोई युवती
किसी तंदूर में नहीं जलाई गयी कोई स्त्री
किसी राजनेता के प्रेम-पाश की
पाशविकता का शिकार नहीं हुई कोई  युवा कवयित्री
देह व्यापर  की दलाली में सामने नहीं आया कोई बड़ा नाम
किसी बड़े गायक पर भी नहीं लगा
बच्चों को नाजायज ढंग से विदेश भेजने का इल्जाम
किसी आला अधिकारी पर भी नहीं लगा यौन शोषण का आरोप
अपने ही दोस्तों द्वारा गैंगरेप और ब्लैकमेल की  शिकार
किसी किशोरी की आत्महत्या का मामला भी नहीं है जनाब
ना  निठारी सरीखे किसी दूसरे अपराध का पर्दाफाश
ना राष्ट्रिय-राजधानी क्षेत्र की किसी लड़की की मर्डर मिस्त्री
जो छाई रही हो समाचारों की सुर्ख़ियों में महीनो तक

ना किसी घोटाले या भ्रस्टाचार की ऐसी बड़ी खबर
जिसमे शामिल हों
बड़े नेता सैन्य अधिकारी या न्यायाधीश तक
जो हो सक्तो हो सनसनीखेज खबर की सूचि में
फिलवक्त ...
जो दिखाई जा सके समाचार चैनलों पर
कई-कई दिनों तक कई- कई बार

लूट-पाट, हत्या, बलात्कार, घोटाला, भ्रष्टाचार...
रोज की इन खबरों के बीच
यदि इस खबर ने चौकाया, ध्यान किया आकृष्ट
तो सिर्फ इसलिए कि एक आम आदमी
उसमे भी एक अबला स्त्री ने
सरेआम एक विधायक कि चाकू मारकर हत्या कर दी

हांलाकि जनता के बदते असंतोष के फूटते इस आक्रोश को
बनानी चाहिए थी देश कीसबसे बड़ी सनसनीखेज खबर

बजाये इसके,
मीडिया ने सुरक्षाकर्मियों की मुस्तैदी का सवाल उठाया
विधायकों  ने अपनी चाक चौबंद सुरक्षा व्यवस्था का
उपमुख्यमंत्री ने ईसपर अविलम्ब विचार करने की बात कही
मुख्यमंत्री ने घटना पर चिंता जताते हुए जाँच की बात कही
किन्तु इसमें उस औरत की चिंता कहीं शामिल नहीं थी
ना शक के आधार पर गिरफ्तार किये गए उसके साथी की
इस ठिठुरते ठण्ड में जिसे नहीं देने दिए गए गरम कपडे भी
न मिलने दिया गया उन्हें उनके परिजनों से.

सदन में बहस जारी थी
जिसमे जनप्रतिनिधियों के चरित्र, सदाचार
और आम आदमी की सुरक्षा और असंतोष से
ज्यादा महत्वपूर्ण था
जनप्रतिनिधियों की सुरक्षा व्यवस्था का सवाल

लोकतंत्र की लहर में ढह गया नेपाल का राजतन्त्र
पाकिस्तान का तानाशाही सैनिक शासन
ट्यूनीशिया में जनविद्रोह से डरकर भाग गया शासक
मिश्र में जन-आंदोलनों के आगे झुक गया हुस्नी मुबारक
इंग्लैंड का अस्त हो गया सूरज
रूस का किला ढह गया
ढह गयी बर्लिन की दिवार
शासन के विरुद्ध चीन में भी पनप रहा है लोगो का  आक्रोश

जनता के धन पर करते ऐयाशी , बटोरते ऐश्वर्य
उनसे प्राप्त शक्ति का
भस्मासुर की तरह उन्ही के विरुद्ध करते प्रयोग
जनप्रतिनिधियों चेतो
अब जनता जग रही है.

वर्तमान साहित्य अक्टूबर २०११ में प्रकाशित 
हमारा राष्ट्रीय गर्व 

हमारे देश का राष्ट्रीय गर्व है
नियम और निषेध के विरुद्ध आचरण .
समाज में ऊंची है उन्ही की साख
जो लिए फिरते हैं कानून अपने हाथ ;
नैतिकता और मर्यादा भी जिनके अनुसार
बदल लेती है अपनी परिभाषा .
बचा है उसी का वजूद
जिसके  होने  के विरुद्ध बोलती रहीं
तमाम ऋचाएं संविधान की सारी धाराएँ


मसलन गीता  और कुरान
और इसका सारा ज्ञान
जिसे लाल कपडे  में बांध रख दिया गया है
अदालत या पूजा स्थान
जिसकी सपथ ले हम धडल्ले से बोल लेते हैं झूठ
जो  होता है हमारे अनुकूल


मसलन लोक कल्याणकारी संविधान
जिसकी शपथ लेते ही राजनेतागण
हो  जाते हैं शहंशाह
वे रौंद  सकते हैं जनता  की उम्मीदें
उनके सपने, उनकी अस्मिता सरेआम

मसलन कानून
जिसकी हद से अक्सर बाहर रहते हैं
इसकी धज्जियाँ उड़ाते अपराधी
आँखों पर बांधे पट्टी कानून की देवी
अपने आबरू से खेलने वालों को
 पहचान भी नहीं सकती

जी हाँ जनाब, इन सबकी बिसात
सड़क किनारे के उस वर्जित कोने की तरह है
जहाँ हमारे जैसे सभ्य, संभ्रांत और शिक्षित लोग भी
खैनी-पान खाकर थूकते और मूतते हैं
बिंदास...  बेपरवाह...
बावजूद इसके कि
बड़े बड़े अक्षरों में साफ-साफ लिखा होता है
यहाँ थूकना और मूतना मन है.
                                               
  वर्तमान साहित्य अक्टूबर २०११ में प्रकाशित

Saturday, February 12, 2011

सृजन लोक

आपकी नई पत्रिका  सृजन लोक अब आपके सामने.कृपया अपनी प्रतिक्रिया और सुझाव से हमें अवगत कराते  रहे.
पत्रिका के लिए सम्पर्क करे -जगतनंद सहाय {प्रधान संपादक } मो.-09431070355, संतोष श्रेयांस {संपादक} मो.-09570554300
गायत्री सदन,संकट मोचन नगर,आरा-802301
इ-मेल-srijanlok@yahoo.com,santshrivastav@gmail.com

Thursday, November 18, 2010

सत्ता



सुनो स्वर्गाधिपति
हमारे भाग्य के नियंता बन
तुम जहाँ बैठे हो, बिठा दिए गए हो
जहाँ स्थापित कर दिया गया है तुम्हें
लाख कोसने गालियाँ देने
यहाँ तक की
तुम्हारे अस्तित्वा पर प्रश्नचिन्ह लगाये जाने के बाद भी
तुम बने हुए हो अक्षुण्ण
चिर स्थाई मुस्कान बिखेरते
गर्भ गृहों में
हमारी आस्थाओं में खंडित होने के बाद भी

स्वगाधिपति
भले ही हमेशा हिलता रहता है तुम्हारा सिंहासन
किसी महिसासुर का बल या विश्वामित्र की तपस्या
नहीं छीन सकती तुमसे तुम्हारी सत्ता
कि संसार को मायाजाल में उलझाये रखने की
तुम्हारे पास बहुत है युक्ति
रम्भा, मेनका या उर्वशी
या तुम्हारे कल छल का बल
डिगा सकता है किसी कि तपस्या
रोक सकता है स्वर्गारोहण से किसी को
किन्तु जब तुमसे ही उत्पन्न
तुमसे ही वरदानित
असुरी शक्तियों का उभरता है तांडव
और अपने सारे कल छल बल के बावजूद
असमर्थ होने लगते हो विजयी होने में
खतरे में पड़ जाता है तुम्हारा स्वर्ग
तब अपनी अपनी शक्तियों के समन्वय से
उत्पन्न कर एक शक्ति
अपने अपने आयुधों से लैस कर
जब समर में उतारते हो रणचंडी
 तब इन्द्र!
तुम्हारी सत्ता को कौन दे सकता है चुनौती

Tuesday, November 16, 2010

सम्बोधन


क्यों जरुरी है
हर रिश्तों का
निश्चित कर दिया जाये
सम्बोधन
अब जबकि सिमट रहा है
संबंधो का व्याकरण
गौण हो रहे हैं
संबंधो में आत्मीयता
जहाँ सामर्थ्य बन गए हैं
संबंधो का आधार
सम्बोधन भरते हैं
सिर्फ आत्मीयता का स्वांग
ऐसे समय में
जब सम्बोधन रह गयी है
महज औपचारिकता
शिष्टाचार की मज़बूरी
बहुत जरुरी है
बचा रख लिए जाएँ कुछ सम्बन्ध
संबोधनो से परे .

Monday, November 15, 2010

मृगतृष्णा



रेगिस्तान सी
वीरान जिंदगी में
चला जा रहा हूँ अकेला
देखता हूँ हर तरफ रेत
तपती रेत ही रेत
चाहता हूँ थोड़ी छांव
जहाँ सुस्ता सकूँ
ठंडा पानी जो प्यास बुझा सके
नर्मघास जिसपर बेफिक्र हो सो सकूँ
दूर... कहीं दूर...
पानी देखते ही दौड़ पड़ता हूँ
और पाता हूँ सिर्फ रेत ही रेत
तपती रेत
बदहवास मै...
मेरे पैर में छाले
प्रतिज्ञा करता हूँ
मरीचिकाओं से आकर्षित ना होने की
बार... बार...
पर हर बार ऐसा ही होता है
तपते रेत पर झुलसते हुए
मै ...
इन मरीचिकाओं के आकर्षण से
मुक्त नहीं हो पाता

किसी उम्मीद में
फिर दौड ही पड़ता हूँ
एक नई मरीचिका की ओर